Sugarcane crop सूड़ी लगने से सूख रहा गन्ना

Sugarcane गन्ने की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग एवं उनका नियंत्रण

यहां भूड़ स्थित गन्ना फसल पर सूड़ी रोग का प्रकोप है। यह रोग लगने से फसल पीली पड़ गई है। इसको लेकर किसान परेशान हैं। किसान फसलों के बचाव के लिए जुटे हैं।

क्षेत्र के गन्ना कृषक सूड़ी के प्रकोप को लेकर दवाओं व कीटनाशकों के लिए भटक रहे हैं। सूड़ी रोग लगने से गन्ने फसल पीली पड़ गई है और सूखने लगी है। सूड़ी कीट फसल को नष्ट कर देता है। इसके प्रकोप से परेशान किसान इधर उधर भटक रहे हैं। किसान संतोष कुमार, रामखेलावन, काशीनाथ, सालिक राम, चेतराम ने बताया कि अधिकांश गन्ने के खेतों में इस रोग का प्रकोप है। फिलहाल किसान निजी दुकानों से दवा खरीदकर छिड़काव कर रहे हैं।

कृषि क्लीनिक केंद्र के प्रभारी छविनाथ शुक्ल ने बताया कि सूड़ी कीट मक्खी की तरह होता है। यह पौधे के पास अंडा देता है। अंडे सूड़ी बनकर पौधे के तने में छेदकर प्रवेश कर जाता है। यह कोमल कली को काट देता है। इससे पौधा सूखने लगता है। उपचार न होने पर पौधा धीरे-धीरे पीला होकर नष्ट होने लगता है। उन्होंने बताया कि इस रोग की रोकथाम के लिए 15 दिन के अंदर दो बार क्लोरोपायरीफाश या इंडोसल्फान दो लीटर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें। इससे फसल को बचाया जा सकता है।

देश में गन्ने का औसत उत्पादन 69.7 टन प्रति हैक्टर तथा चीनी प्राप्ति 10.62 प्रतिशत है, जिससे लगभग 25.12 मिलियन टन सफेद चीनी का उत्पादन होता है। एक आकलन के अनुसार वर्ष 2030 तक घरेलू मांग को पूरा करने के लिए 33 मिलियन टन चीनी उत्पादन की आवश्यकता होगी। इस मांग को पूरा करने के लिए गन्ने के उत्पादन को 520 मिलियन टन तथा औसत उत्पादकता को 100 से 110 टन प्रति हैक्टर तक बढ़ाना होगा। भारत में दूसरे देशों की अपेक्षा गन्ने की प्रति इकाई पैदावार बहुत कम है।

भारत में लाल सड़न रोग के कारण अनुमानतः 19-25 प्रतिशत गन्ने के उत्पादन में हानि होती है। गन्ने में वानस्पतिक प्रवर्धन होने के कारण रोगी गन्ना बीज के साथ ही एक खेत से दूसरे खेत में पहुंच जाता है। इसीलिए ‘रोकथाम, इलाज से बेहतर है’ की अवधारणा गन्ना की खेती में महत्वपूर्ण गैर-मौद्रिक घटकों में से एक है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विभिन्न राज्यों के बीच संगरोध की कोई उचित व्यवस्था न होने के कारण रोपाई के लिए प्रयोग किये जाने वाले गन्ना बीज के साथ-साथ इस रोग की फफूंद एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में फैल जाती है। इसके कारण, गन्ने का रस सड़कर दूषित हो जाता है और चीनी की उत्पादकता में कमी आ जाती है। इससे मिल मालिकों को आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ती है।

लाल सड़न रोग

यह रोग कोलेलेटोट्राचिम फाल्केटमनामक फफूंद से होता है। इसके कारण पौधे का संवहन ऊतक माइसेलियम के विकास के कारण बंद हो जाता है। यह पत्तियों में बने भोजन और मृदा से पानी के साथ विभिन्न खनिजों को लाने का काम करता है। इस रोग से प्रभावित फसल की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं और बाद में सूख जाती हैं, जिससे गन्ने का विकास प्रभावित होता है।

संक्रमण

इसके बीजाणु, मृदा, फसल अवशेषों जैसे-पत्तियां तथा जड़ों के अवशेषों आदि में गन्ना उत्पादन में लाल सड़न रोग से कमी जीवित रहते हैं। ये अनुकूल वातावरण मिलने पर संक्रमण करते हैं। इस रोग का शाकाणु प्रभावित बीज गन्ना (सेट्स) के उपयोग से एक खेत से दूसरे खेत में फैलता है।

पहचान

इस रोग के लक्षण जुलाई-अगस्त में दिखाई देने लगते हैं। ग्रसित पौधों के ऊपर से तीसरी और चैथी पत्तियां एक या दोनों किनारे से सूखना शुरू होती हैं। धीरे-धीरे पूरे पौधे में रोग के संकेत मिलते हैं और अंततः पौधा पूर्णरूप से सूख जाता है। जैसे ही गन्ने की ऊपरी पत्तियां पीली दिखाई दें, गन्ने को बीच से अलग करने पर लाल रंग दिखाई देता है, जिससे एल्कोहल की गंध आती है।

बचाव

इस रोग से होने वाले नुकसान से बचने के लिए किसानों को बहुत अधिक सावधानी बरतने की जरुरत होती है। गन्ने की प्रभावित फसल में लाल सड़न रोग को नियंत्रित करना कठिन होता है, इसलिए रोपण के लिए लाल सड़नमुक्त स्वस्थ गन्ने का चुनाव करना चाहिये। तने के ऊपर का 1/3 से 1/2 भाग प्रायः सभी रोगों से मुक्त होता है। इसका अंकुरण भी जल्दी होता है। इसलिए रोपण के लिये इसी हिस्से का प्रयोग करना चाहिये। किसानों को गन्ने के रोपण के लिए खेत के चयन से लेकर फसल की कटाई तक निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

गर्मियों में खेत की गहरी जुताई

रबी की फसल की कटाई के बाद जिस खेत में गन्ने का रोपण करना हो, उस खेत की मिट्टी पलट हल से गहरी जुताई कर देनी चाहिए। यह जुताई गर्मी के महीने मई-जून में मानसून आने से पहले की जाती है। इस जुताई से मृदा सतह पर आ जाती है, जिससे इस रोग के शाकाणु भी ऊपर आ जाते हैं तथा धूप लगने से नष्ट हो जाते हैं। इससे बोई जाने वाली फसल में द्वितीयक संक्रमण की आशंका कम हो जाती है।

फसलचक्र अपनाएं

एक निर्धारित समय में किसी निश्चित भूभाग पर विभिन्न फसलों को अदला-बदली कर बोने को फसलचक्रण कहते हैं। आमतौर पर रोगजनक, स्केलेरोटिया या बीजाणु मृदा तथा फसल अवशेषों में वर्ष-दर-वर्ष परजीवी या मृतजीवी के रूप में जीवित रहते हैं। फसलचक्रण में 2-3 वर्ष तक ऐसी फसलें उगाने से इस रोग के शाकाणु संक्रमण नहीं कर सकते हैं(जैसे-दलहनी, तिलहनीवर्गीय फसलें) और पोषण न मिलने से रोगाणु नष्ट हो जाते हैं।

प्रबंधन एवं नियंत्रण

  • रोपण के लिए रोगरोधी प्रजातियों का उपयोग करना चाहिए। कुछ प्रतिरोधी किस्में जैसे-को.-957, को.-975, को.-1148, को.-1158, को.-1336 और को.-6611 या को.शा.-561, को.शा.-574 एवं बी.ओ.-3, बी.ओ.-10, बी.ओ.-47 को किसान सफलतापूर्वक उगा सकते हैं।
  • रोगरहित एवं स्वस्थ गन्ना बीज, प्रमाणित पौधशाला से लेकर रोपण करने से रोग का द्वितीय संक्रमण फैलने की आशंका नगण्य हो जाती है।
  • गन्ना बीज (सेट्स) को 54 डिग्री सेल्सियस तापमान पर ढाई घंटे तक नम गर्म वायु (ऊष्मोपचार) उपचार देने से बीज सतह पर पड़े रोगकारक नष्ट हो जाते हैं।
  • शरदकालीन गन्ने के साथ राई या धनिया की सह फसल लेने से भी इस रोग का प्रभाव काफी कम हो जाता है।
  • जिस खेत में रोग लगा हो उसकी मेड़बंदी कर देनी चाहिए, ताकि सिंचाई के साथ शाकाणु दूसरी फसल को प्रभावित न कर सके।
  • फसल कटने के उपरांत खरपतवारों को खेत में ही पलटकर नष्ट कर देना चाहिए।
  • अवांछित तथा रोगी पौधों को जड़सहित खेत से निकालकर जला देना चाहिए।
  • रोगी फसल की पेड़ी नहीं रखनी चाहिए एवं उस खेत में गन्ने का 2-3 वर्ष तक रोपण नहीं करना चाहिए।
  • भाकृअनुप-भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान द्वारा ट्राइकोडर्मा कल्चर (जो लाल सड़न के जैविक नियंत्रण में प्रभावी है) की रोपाई से पहले क्यारी में 20 कि.ग्रा. प्रति हैक्टर की दर से प्रयोग करने की संस्तुति की गयी है।
  • एकीकृत रोग प्रबंधन अपनायें।
  • फफूंदीनाशक दवा जैसे-कार्बेन्डाजिम (0.2 प्रतिशत) घोल में एसेटिक एसिड (0.2 प्रतिशत) या बाविस्टिन (0.2 प्रतिशत) डालकर गन्ना बीज को 30 मिनट तक उपचारित करके बोने पर इस रोग का प्रकोप घट जाता है।

लाल सड़न रोग से हानि

उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, बिहार और ओडिशा में इस रोग से गन्ने को अधिक हानि होती है। उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस रोग का प्रकोप महामारी के रूप में होता है। दक्षिण भारत जैसे-तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक में लाल सड़न का प्रकोप अपेक्षाकृत कम होता है। उत्तर प्रदेश में वर्ष 1939 और वर्ष 1942 के दौरान यह एक महामारी के रूप में उभरा था। परिणामतः गन्ना उत्पादन पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा था। उन क्षेत्रों में जहां गन्ने की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है, गन्ना ही किसान के मुख्य आय का स्रोत होता है। यदि इस रोग का संक्रमण किसी खेत में हो गया तो पूरे क्षेत्र में इस रोग से फसल को बचा पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है। इस रोग से संक्रमित गन्ने को मिल मालिक लेने से भी इंकार कर देते हैं, जिससे किसान को इसे खेत में ही जलाना पड़ता है। यह वर्षभर की फसल है, इसलिए किसान को आर्थिक रूप से बहुत अधिक नुकसान होता है।

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